जुगुरी / धीरज श्रीवास्तव
भाग रही है बचती बचती घिरी हुई है आग ।
देख भयावह स्वप्न रात में अक्सर जाती जाग ।
भाग्य छिपा है अँधियारे में
हुए न पीले हाथ !
काट रही है भरी जवानी
भारी मन के साथ !
उस पर रोज खोदता गंदा घर के पीछे काग ।
देख भयावह स्वप्न रात में अक्सर जाती जाग ।
जब-जब चले मंद पुरवाई
सिसके उसकी प्रीत !
ढूँढ़ निकाला था श्यामू ने
नथुनी में संगीत !
पर सागर में डूब गया है उसका भी अनुराग ।
देख भयावह स्वप्न रात में अक्सर जाती जाग ।
कैसे भला कली मुस्काये
करते भौंरे तंग !
अपना-अपना राग छेड़ते
लगना चाहें अंग !
ताकें झाँकें कीट पतंगे बिन माली का बाग ।
देख भयावह स्वप्न रात में अक्सर जाती जाग ।
अगल-बगल की सखियाँ सारी
खेल रही हैं रंग !
पर जीने की खातिर जुगुरी
सोच रही है ढंग !
बरस रहा अँखियों से सावन कैसे गाये फाग ?
देख भयावह स्वप्न रात में अक्सर जाती जाग ।