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जुड़वाँ शिशु / विनोद दास

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शहतूत की तरह
उम्र पकने के साथ-साथ
हमारी त्वचा
एक सी हो रही हैं साँवली

हमारी झुर्रियाँ की बुनावट इतनी मिलती है
जैसे अनुभवी हाथोंवाले किसी एक क्रोशिये से बुनी गई हो
 
हमारी वाणी में इतनी संगति दिखती है
जैसे हमारे पास एक ही शब्दकोश हो
 
हमारी आह्लाद की तालियों में
एक हथेली तुम्हारी होती है
दूसरी मेरी

कोई औचक भी हमें अकेला देखना नहीं चाहता
अकेला दिखने पर सबकी आँखें पूछतीं
जैसे एक जुर्राब दिखने पर
तुम विकलता से पूछती हो
दूसरा कहाँ है

कुछ चीज़ें जोड़े में न दिखती
तो अपूर्ण लगतीं
मसलन आँख-कान,दस्ताने-जूते
हम और तुम

बेरंग बिछी चादर पर
मतभेदों के तकियों पर सिर रखकर
हम दिखते साथ-साथ
एक दूसरे की बाँहों पर अपनी बाँह रखे हुए
प्रेम गर्भ से निकले
अबोध जुड़वाँ शिशु की तरह