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जेब का सन्नाटा / योगेन्द्र दत्त शर्मा

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देखिये, जिस्म में हलचल कोई हरकत ही नहीं,
आज के दौर में जी लेने की हसरत भी नहीं
सो गया जेहन किसी खौफ के अंधियारे में
तीरगी बिखरी हुई सोच के गलियारे में
टूट गिरती है कोई बर्क दरख्तों पे मगर
सैकड़ों बार समेटा है ये दहशत का सफर

फिर उसी दर्द के तहखाने में आ जाता हूं
बारहा अपने ही साये से मैं कतराता हूं
कौन रखता है मेरे सामने ये आईना
इस कदर मौत से बदतर तो नहीं था जीना
इस तरह जीने का आखिर तो कोई होगा सबब
रोज इस खामखयाली में क्यो रहता हूं महब

लोग जब मेरी तलाशी में इधर आयेंगे
मेरे चेहरे की उदासी से दहल जायेंगे
कुछ सवालों के सिवा कुछ भी मेरे पास नहीं
सुगबुगाहट का जरा-सा भी तो अहसास नहीं
सालता बस मुझे दिन-रात यह कांटा है
क्या कहूंगा कि मेरी जेब में सन्नाटा है!
-19 जुलाई, 1977