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जेब में जनतंत्र / प्रमोद कुमार

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एक जेब में
ढोएँ कितनी मिट्टी
भर लें कितनी हवा
किस कोने रखें धूप
कैसे बचाएँ नमी !

अपने किस कोने से झाड़ें
गाँव जाने का किराया
हुक्का-पानी चलाने
तोड़ें बच्चों के कितने गुल्लक,
              
हाथ से फिसलते खेसरा-खतौनी पर
रखें कौन सा पेपर-वेट,
अगली फस़ल के लिए
उजड़ते बखार में सजोएँ
कौन से महान बीज,
                                       
बापू की तस्वीर के लिए
कच्ची दीवार पर
कितनी गहरी ठोकें सत्यवादी कील
एक सिकुड़ते घर में
बच्चों को कैसे पढाएँ
फैलते संसार का मानचित्र,
दूर की दिल्ली पर न छोडें
तो किस ज़मीन पर
लगाएँ अपना प्रिय तिरंगा !
                                                 
हमारी जेब में
सिकोड़ दी गईं हमारी जड़ें,
हम क्या पसरें
कैसे फूलें-फलें,
लम्बे-चौड़े आसमान को खोखला न कहें
तो बस ऊपर ताक-ताक
स्वाति की किस बूँद के लिए
छूँछे दुलार को
मानते रहें अपना मोती !