ज्योँ रजनीगन्धा / किशन सरोज
मन की सीमा के पास-पास
तन की सीमा से दूर-दूर
तुमने योँ महकाईँ मेरी गलियाँ,
ज्यों रजनीगन्धा खिले पराये आँगन में
भुजपाशों में भी सिहर उठे जब रोम-रोम,
प्रियतम कहने में भी जब अधर थरथरायेँ
क्या होगा अ़न्त प्रीति का ऐसी तुम्हीं कहो,
जब मिलने की बेला में भी दॄग भर आयें
हृदयस्पन्दन के पास–पास
दैहिक बन्धन से दूर–दूर
तुम छोड़ गये योँ प्राणों पर सुधि की छाया
ज्यों कोई रूप निहारे धुँधले दर्पन में
जीवन की सार्थकता है जब गति हो उसमें
अपना अनुभव कह लो या सन्तों की बानी
जब तक बहता है तब तक ही पावनता है
यमुना जल हो या नयनों का खारा पानी
अन्तर्दाहोँ के पास–पास
सुख की चाहों से दूर–दूर
तुमनें योँ विवश किया जीवन भर जीने को
ज्यों आग कहीँ लग जाय किसी गीले वन में
सम्भव है कभी सुधर जाये सँकेतोँ से
राहों में यदि भटकाये भूल निगाहों की
पर जब साँसों में भी घुल जाये अँधियारा
रोशनी नहीं, है वहाँ ज़रूरत बाँहों की
तम की दहरी के पास-पास
स्वर के प्रहरी से दूर–दूर
योँ धीर बाँधते रहे विलग रहकर भी तुम
ज्यों नदी पार दीवा जलता हो निर्जन में।