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टूटता है कोई / गीत चतुर्वेदी
Kavita Kosh से
एक बार उसने मेरे लिए रोटी बनाई
उस पर उसके हाथ की लकीरें चिपक गईं
फिर उठकर मेरे सिरहाने आई
छुआ मेरे माथे का ताप
और ले गई लकीरें साथ
किसी बूढ़े ने नीचे से आवाज़ लगाई
हम अपनी चुप्पी के पाश में थे
वह निकल गया छड़ी टकटकाता
उस पेड़ के नीचे जाकर बैठ गया
जो मुझे नज़र आता अपने बचपन का घर
मैं देवदूतों से उन दोनों की पैरवी करना चाहता था
बड़े-से घंटे पर कोई मारता है हथौड़ा
अंतरिक्ष में टूटता है कोई पुच्छल तारा
गलियारे से चलने की आवाज़ आती है
कौन है जो गुज़रा है अभी-अभी
हड्डियाँ पहन
उड़ न जाए
सो पत्थरों से ढाँपकर रखा यह तन
ग़फ़लत में हो गए किसी पुण्य का
असर हो जाए कभी
इंतज़ार में हूँ