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टेलीफ़ोन / बुद्धदेब दासगुप्ता / कुणाल सिंह

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फ़ोन करते करते रविरंजन सो गया है
चेन्नई में टेलीफ़ोन के चोंगे के भीतर
रवि की पत्नी पुकार रही है कोलकाता से — रवि ... रवि ...
सात बरस का बेटा और तीन बरस की बेटी
पुकारते हैं — रवि ... रवि ...।

अन्धेरे बादलों से होकर, नसों-शिराओं से होकर
आती उस पुकार को सुनते-सुनते
रवि पहुँच गया है अपने
पिछले जनम की पत्नी, बच्चों के नम्बर पे
याद है ? याद नहीं ?

पिछले जनम के टेलीफ़ोन नम्बर से तैरती आती है आवाज़
याद नहीं रवि ? रवि ?
मंगल ग्रह के उस पार से
सन्न-सन्न करती उडती आती है
पिछले के भी पिछले जनम की पत्नी की आवाज़ ।

रवि, तुम्हें नहीं भूली आज भी
याद है, मैंने ही तुम्हें सिखाया था पहली बार
चूमना । रवि याद नहीं तुम्हें ?

टेलीफ़ोन के तार के भीतर से
रिसीवर तक आ जाती है एक गौरैय्या
रवि के होठों के पास आकर सबको कहती है —
याद है, याद है ! रवि को सब याद है ।

ज़रा, होल्ड कीजिए, प्लीज़, रवि अभी दूसरे नम्बर पर बातें कर रहा है
अपने एकदम पहले जनम की पत्नी-बच्चों से
जिसने उसे सिखाया था कि कैसे किसी को प्यार करते हें
सात-सात जन्मों तक ।

मूल बांग्ला से अनुवाद : कुणाल सिंह