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डरा पक्षी / सुभाष काक

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कांपते, रात के तूफान में
बिजली की चौंध में
नष्‍ट नीड देख कर
वह लौटा घर निराश।

विश्‍व सिकुड गया था तब
कोई दूसरा नहीं
जो अपने जैसा रहा।
नहीं ढूंढना अब कोई।

भूमि बहुत अलग सी थी
रेत थी मकान थे
ध्रुव ऋतु समान सी
न धूप थी न चां‍दनी।

खिडकी में जब देखता
बन्‍धु उछल रहे
पंख भरते उडान
यह द्‌श्‍य गोच कर।

नल की फुहार बनी
उस की बरसात अब
सुदूर भूले देश में
रिमझिम पानी गिर रहा।