भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तजर्बात-ए-तल्ख़ ने हर-चंद समझाया मुझे / सय्यद ज़मीर जाफ़री

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तजर्बात-ए-तल्ख़ ने हर-चंद समझाया मुझे
दिल मगर दिल था उसी महफ़िल में ले आया मुझे

हुस्न हर शय पर तवज्जोह की नज़र का नाम है
बार-हा काँटों की रानाई ने चौंकाया मुझे

दूर तक दामान-ए-हस्ती पर दिए जलते गए
देर तक उम्र-ए-गुज़िश्ता का ख़्याल आया मुझे

हर नज़र बस अपनी अपनी रौशनी तक जा सकी
हर किसी ने अपने अपने ज़र्फ़ तक पाया मुझे

हर रवाँ लम्हा बड़ी तफ़्सील से मिलता गया
हर गुज़रते रंग ने ख़ुद रूक के ठहराया मुझे

ग़ुंचा-ओ-गुल महर ओ मह अब्र ओ हवा रूख़्सार ओ लब
ज़िंदगी ने हर क़दम पर याद फ़रमाया मुझे