तत्र...गंधवती पृथ्वी / कविता वाचक्नवी
तत्र..........गंधवती पृथिवी
बरसों पहले
वैशेषिक, न्याय, सांख्य के
सूत्रों में बिंधे-बिंधाए
पृथ्वी का लक्षण पढ़ा -
"......गंधवती पृथिवी"
जी भर गंध ढूँढ़ती भटकती
सावन के छींटों में
कच्ची धरती की खोज में।
न धरती मिली, न गंध
और न ‘दर्शनकार’ के अर्थ की मीमांसा।
पृथ्वी धुरी पर घूमती
रात भर
दिवस भर,
संसार ने घोटमघोट पढ़ाया -
तू पृथ्वी बन
खूब सह
खूब झेल
खूब उपजाना
कुचली भले जाना।
गंध दाबे-दबाए
हो गई एक पृथ्वी-मिट्टी।
उसने नदियाँ बहाईं
प्रजा-पोषण किया
पेड़ और फूल भी उगाए।
जल और ज्वालामुखी समेटकर
खोजती रही गंधवती
अपनी गंध
दो फुहारों की आशा में लुटाती रही मिट्टी
-----सारे आस्वाद
सूखा पड़ा----मिट्टी हो गई पत्थर
अकाल पडे़---भूमि में पड़ीं दरारें
उगने लगे कैक्टस।
जाने युगों पूर्व की कौन-सी फुहार
फिर चेताती - तत्र..गन्धवती पृथिवी।
पर फिर
मैंने छोड दिया
‘दर्शनकार’ के अभिप्राय का
तत्व खोजना
फुहारों से स्नात पृथ्वी की गंध ढूँढ़ने का अभियान।
पत्थर और कण-कण होती पृथ्वी के
मुरझाए आँचल पर
न आकाश ने मेह सीचे
न गंध ने नथुने महकाए।
ओ दर्शनकार!
पृथ्वी की परिभाषा
मेट दो,
कहीं आकाश में बादल नहीं घुमड़ते
किसी आकाश में जल के छींटे अवशिष्ट नहीं।
पाखंड हैं फुहारें
और
‘एलर्जी’ है नीलांचल को
गंध से,
इसीलिए
वह नहीं बरसा सकता
नेह का मेह।