तलस्तोय और साइकिल / केदारनाथ सिंह
आपने कभी सोचा है
महान ताज़ में क्यों नहीं रही
वह पहली सी चमक ?
वह पहली सी गूँज
रोम के घण्टे में ?
वह आश्चर्य पहला-सा दीवार में
चीन की ?
पर क्यों-क्यों
आपकी गली से गुज़रती हुई
एक जर्जर साइकिल की छोटी-सी घण्टी में
वही जादू है
जो उस दिन था जब तलस्तोय ने पहले-पहल
देखी थी साइकिल
और तलस्तोय चूँकि तलस्तोय थे
इसलिए वे एक उदास घोड़े से
कर सकते थे बातें
कर सकते थे कोशिश एक रंगीन चित्र को
काग़ज़ से उठाकर
जेब में रखने की
दे सकते थे आदेश समुद्र की लहरों को
एक अभय मुद्रा में हाथ उठाकर
पर तलस्तोय गिर सकते थे साइकिल से
साइकिल सीखते हुए
यासनया पल्याना की उस कच्ची सड़क पर
उस दिन जो साइकिल ने
धूल झाड़कर इतिहास में प्रवेश किया
तो जैसे आजतक
हर आदमी के पीछे-पीछे घण्टी बजाती हुई
उससे बाहर निकलने का
रास्ता खोज रही है...