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तस्वीर की चौखट / रति सक्सेना
Kavita Kosh से
मैंने बहुत चाहा कि
तस्वीर
की चौखट में बैठ
एक ही मुद्रा में
जम कर
दीवारों से दोस्ती बनाऊँ
मैंने अपने को
अट्ठारहवी सदी की तस्वीर में
बैठा देना चाहा
मेरे केवल दो रंग और एक भंगिमा रह गई
मेरी जम्फर के फूलों पर
तितलियाँ तब भी नहीं थीं
अब मैं वक्त से काफी आगे निकल गई
इक्कीसवीं सदी की चौखट मे जा कर
जम गई
अचानक मेरे भीतर
इतने सारे रंग इतना उछाल मारने लगे कि
मेरा अपना ही रंग दब गया
दीवार से मेरी दोस्ती नहीं हो सकती
वे सिर्फ मेरे रास्ते को काटती हैं
तस्वीरों, इंतजार करो
शायद तुम्हारी चौखटें
मेरे कद से छोटी हैं।