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ताल का जल / शशि पुरवार
Kavita Kosh से
बढ़ रहा शैवाल बन
व्यापार काला
ताल का जल
आँखें मूंदे सो रहा।
रक्त रंजित हो गए
सम्बन्ध सारे
फिर लहू जमने लगा है
आत्मा पर
सत्य का सूरज
कहीं गुम गया है।
झोपडी में बैठ
जीवन रो रहा।
हो गए ध्वंसित यहाँ के
तंतु सारे
जिस्म पर ढाँचा कोई
खिरने लगा है
चाँद लज्जा का
कहीं गुम हो गया है।
मान भी सम्मान
अपना खो रहा।