तिरस / सत्यप्रकाश जोशी
बावळी साथण
म्हनैं कुंज रै दुवारै
माडांणी बाथेड़ौ कर लाई
‘ देख थारौ कांन्हूड़ौ
इण गुजरी रो माथौ
आपरै खोळै में धरियां
उण रै केसां मोर पांख फेरै,
नैणां में जोवै,
हिवड़ा में झांखै,
कचकोळियां खणखणावै,
माखण ज्यूं गोरी कळायां नै सहळावै,
अर थूं मन में मोद करै
नैणां में गुमेज भरै
के थूं कांन्हा री
नै कांन्हौ थारौ।
नैणां निरखी बात कदै न कुड़ी होय,
सांप्रत कर लीजै पतियारौ
आ थूं राधा, नै ओ कांन्हौ थारौ।
म्हैं मुळकती री, निरखती री,
म्हैं भाळती री, म्हैं टाळती री,
थारैं नखां री ओप
दीवा री जोत जोत में जागै
थारै नैणां रौ तेज
चांद सूरज रै सागै
थारै प्रांणां रा झबका
चळापळ तारां नै पळकावै,
थारै हेत रौ निरमळ नीर
पांन पांन नै सरसावै,
थारी अमर प्रीत री सौरम
फूलां फूलां में मुसकावै,
थारै नैणां रौ नेह,
जणा जणा में छिळकै।
पण नेह उझळकै कोनी,
थारी ओप ऊतरै कोनी,
थारा प्रांण रीतै कोनी,
कांन्हूड़ा !
यूं ईं लाख लाख प्रांणां री ओकां में
थूं नेह री अखूट धार कूढ़ियां जा
कुण कितरौ तिरसौ है
बेरौ पड़ जासी,
कुण कितरौ रीतौ है
पोतौ मिळ जासी।