तुम्हारे शब्द / चन्द्रकान्त देवताले
लोहे के दाँत दरख्तों को कुतरते हुए
और जंगल भर रुदन
पक्षियों का
तुम्हारे शब्द नीले पड़ गए हैं विषाक्त होकर,
नर्मदा के पुल पर से देखे थे तुमने
जलते हुए पहाड़
सुनी थी मिटटी की हाँडी में खदबदाती
कुटकी की महागाथा.
पाँचों बोगदों में अभी भी स्थगित हैं
वहीँ की वहीँ
वे तमाम चीज़ें
जिनमें सम्मिलित है
स्मृतियों का गडा हुआ खजाना
भूख और दाँतों के दर्द की दवा
भीतर का सब कुछ
स्याह रातों की आँतों में अटका हुआ
और तुम्हारे शब्द बाढ़ भर फजीहत में
सूज कर डोम हो गए हैं,
हँस कर आसानी से
अँधेरे में
आँखों का इंतज़ार करते
खड़े रहना वर्षों तक कितना मुश्किल था
और अब कितना भयानक है यह
रोशनी का इस कदर पाना
कि चीज़ें खिसक जाएँ सब अपनी जगह से
जहाँ पानी के लिए हाथ डालो
वहीं एक विष दंश मिले
यदि बटन दबाकर खोलना चाहो दरवाज़ा
कुएँ में गिरने से बच पाना न हो सके-
सचमुच
बेहद चिकनी मिट्टी पर
फिसलती रही हैं अनिश्चय की रातें
और तुम्हारे शब्द
तर्क के चाकू पर लहूलुहान हो रहे हैं.