भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
तुम्हें हँसता देखकर / विष्णु नागर
Kavita Kosh से
तुम्हें हँसता देखकर
अचानक यह दुष्ट खयाल आया
कि तुम रोते हुए कैसी लगोगी
और तब भी मैंने तुम्हें हँसते हुए पाया!