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तू-मैं / अज्ञेय

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तू फाड़-फाड़ कर छप्पर चाहे
जिस को तिस को देता जा
मैं मोती अपने हिय के उन में भरा करूँ।

तू जहाँ कहीं जी करे
घड़े के घड़े अमृत बरसाया कर
मैं उस की बूँद-बूँद के संचय के हित सौ-सौ बार मरूँ।

तू सुर-लोकों के द्वार खोल नित नये
राह पर नन्दन-वन कुसुमाता जा-
मैं बार-बार हठ कर के यह, अनन्य यह मानव-लोक वरूँ।

मोती बाग, नयी दिल्ली, 18 जून, 1957