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तों आबोॅ / अनिल शंकर झा

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गुमसुम अकेला में,
पिघली केॅ टपकै छै चाँद,
ऐंगना दुआरी में,
तों आवोॅ।
कटलोॅ पतंगोॅ रं,
ओझराबै छै चाँद,
मंजरैलोॅ गाछी में,
तों आवोॅ।
चुप्पेचाप, कानोॅ में,
की नै जानों बोलै छै,
बरसेॅ के रोगी रं
पथरैलोॅ आँखी सें,
करूणा रं घोलै छै
तों आवोॅ।
बिरही छै,
बाटोॅ में अटकै छै,
कथी ले भटकै छै?
चुप छै-
पर चुप्पी ही बोलै छै-
की-की वें सहै छै,
करूणा के अनगिनत अदृश्य धारा,
दूधोॅ रं बहै छै,
तों आबोॅ।