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दलालों का क्या हुआ / सूरज राय
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कोने में घर के मकड़ी के जालों का, क्या हुआ
अनसुलझे ज़िंदगी के सवालों का क्या हुआ
दिल के चमन के, पत्ते तलक खौफ़जदा हैं
उन हसरतों के शोख गजालों का क्या हुआ
कालीन बेचने लगे हो तुम, सुना है ये
या रब तुम्हारे पाँव के छालों का क्या हुआ
अंदेशा-ए-अजल से क्यूँ काँपने लगे लब
वो ज़िंदगी के शिकवे-मलालों का क्या हुआ
मिट्टी से मुझे ढाँकने वाले ये बता दे
संग मेरे गुज़ारे हुए सालों का क्या हुआ
मैयत में तेरी, कोई भी अहले शहर नहीं
‘सूरज’ वो तेरे चाहने वालों का क्या हुआ