भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दशरथ मरण / राघव शुक्ल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सांकलें सब बंद कर दो मत महल के द्वार खोलो
राम को किसने दिया चौदह बरस बनवास बोलो

मंथरा की भांति जीवन
से जुड़ी है एक दासी
परिस्थितियां बन गई हैं
चंद पल में प्राण प्यासी
धड़कनें ये थम रही हैं लो तनिक नाड़ी टटोलो

देह मेरी जल रही है
यह समय कैसा पड़ा है
वक्ष के भीतर चटकता
हृदय का कच्चा घड़ा है
धर्मसंकट के तराजू पर न मुझको और तोलो

सत्य है होगा वही जो
नियति को स्वीकार होगा
राम के स्कंद पर ही
इस धरा का भार होगा
जा रहा सब छोड़ कर हूँ नैन सब अपने भिगो लो