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दिखता कुछ-कुछ / विजय गौड़

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रात के ग्यारह बज रहे हैं
यूँ सोए हुए देखता हूँ
तुम्हें और बच्ची को

तुम्हारा एक हाथ
मेरे आस-पास बिखरी
क़िताबों को छूता हुआ
मुझे स्पंदित कर रहा है
छत पर लेटी अंगूर की बेल-सा
स्थिर है
तुम्हारा चेहरा

विद्रूप होती राजनीति से
निजात पाने की कोशिश में
कविता की पँक्तियाँ
मेरे भीतर जन्म ले रही हैं

बिटिया के माथे पर
चिपका दी गई
तुम्हारे माथे की बिन्दिया
स्थिर है

बिटिया के भोले-भाले सपनों को
तुम्हारी आँखों में
देखूँ कैसे ?