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दिन ढलते ही / शिव मोहन सिंह
Kavita Kosh से
दिन ढलते ही रात घनी
गुमनाम यहाँ होती है।
आज कहाँ अभिराम किसी
की शाम यहाँ होती है।
ऐसे ही क्या कम होता है
अब अंतर दिन रातों का।
कितना अर्थ बड़ा होता है
छोटी-छोटी बातों का ।
अब पीपल की छाँव धूप
के नाम यहाँ होती है।
नयनों ने भी कब जाना है
दूर क्षितिज का अफसाना।
गगन धरा के मध्य अपरिमित
सबका अपना पैमाना ।
मान बिना तो मर्यादा
बेनाम यहाँ होती है।
कैसे भाव भरेंगे घट में
रुनझुन का भ्रम टूटा है।
कानन के कुसुमित कलरव को
कोलाहल ने लूटा है ।
लहरा कर पावन गंगा
बदनाम यहाँ होती है।