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दिन हैं बचकाने / कुमार रवींद्र
Kavita Kosh से
भोले हैं चिड़ियों के बच्चे
पत्थर की बस्ती में खोज रहे दाने
दिन हैं बचकाने
आंगन में बेहिसाब
जड़े हुए हीरे
गुंबज में सूरज की
लटकीं तस्वीरें
छूती रितु फूलों को पहने दस्ताने
दिन हैं बचकाने
पीढ़ी-दर-पीढ़ी थे
सड़कों पर भटके
ऊँचे फानूसों से
घर उलटे लटके
देख रहे आग लगी बिलकुल सिरहाने
दिन हैं बचकाने
लोग चले जंगल में
आँधियाँ उठाये
लौटे हैं महलों से
खून में नहाये
बंदूकें लगा रहीं पीठ पर निशाने
दिन हैं बचकाने