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दियिव नज़र अज़ / दीनानाथ ‘नादिम’
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इधर तो देखो
चारों तरफ़ देखो
ऐसा आभास होता है ना
कि धुंध अभी बाक़ी है
बचा है कहीं धूप का कोई छींटा अगर
तो है उसके पीछे पड़ा धुआँ
खिले हैं अकाल कुसुम कितने
कितनी खुशबू उड़ रही है
बहुत से रंग हैं मगर लजीले
बहुत आर्द्र है पवन वासन्ती
विचार रंगीन बहुत उभरते
परन्तु धुंध के दलों के दल <ref>षडयंत्र</ref> रच रहे हैं क्या
सुशीलता पर प्रतिबंध क्यों है ?
सच के ़द्वार पर क्यों पड़े हैं ताले ?
अभी भी तो लोग खाते है सीना ताने
गांधी औ, नेहरू की क़समें
सत्य फिर क्यों चढ़ाया जा रहा है सूली पर
पवित्रता, मन की सादगी का
क्यों नहीं है कोई मूल्य कहीं भी?
शब्दार्थ
<references/>