दीदी / मनोज बोगटी / प्रदीप लोहागुण
आंँखों के किनारे काजल लगाती है कोयले की धूल से
और मस्तक पर चिपकाती है
एक धूप ।
पता नहीं, कैसी ख़्वाहिश है यह उनकी
लड़की बनने की ।
संसार की सबसे ताक़तवर दीदी
जो दो दर्जन बकरों का घर अकेले ही साफ़ कर देती है
जो बछड़ों वाली चार गायों को अकेले ही घास जुटाकर खिला देती है
भुट्टा निगलने के लिए पानी भी नहीं चाहिए होता है जिन्हें ।
दीदी किसी से कभी नहीं डरी
डरती है महज एक ‘अ’ से
बस एक ही ‘क’ से ।
धूप को ही मस्तक पर चिपकाने वाली दीदी के साथ
कोई भी बदतमीज़ी या छेड़खानी नहीं कर सकता ।
कोई आग उनकी नज़रों से नज़र मिलाकर देखने की हिम्मत नहीं रखती ।
जिस जंगल को खाया आग ने
उसी जंगल में निधड़क चलने वाली दीदी की ऐड़ी से
डरता है किसी भी तरह का बदमाश काँटा ।
जब रात होती है
पता नहीं क्या ऐसा होता है दीदी को
कि लम्बे कानों वाली बकरी के कान से भी
बहुत ही छोटे ‘ए’ को देख थरथराने लगती है ।
दादाजी के लाठी से भी बहुत छोटे ‘1’ से भी कँपकँपाती है दीदी ।
रात्रिशिक्षा के शिक्षक ज़बरदस्ती खींचते हुए ले जाते हैं ।
एक दिन
दीदी पैर पटकते हुए अकेले रोई
और हम सबको रुलाया
क्योंकि
काँपते हुए हाथों से दीदी पहला अक्षर लिख पाई थी
वह था ‘भा’.
बाद में उसमें जोड़ दिया ‘त’.
क्योंकि दीदी को भूख लगी थी ।
बहुत बाद में बीच में
उन्होनें जब ‘र’ को डाल दिया
उस वक़्त दीदी को पता नहीं कैसा लगा होगा ।