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दुनिया अब क्या मुझे छलेगी / हरिवंशराय बच्चन

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दुनिया अब क्या मुझे छलेगी!

बदली जीवन की प्रत्याशा,
बदली सुख-दुख की परिभाषा,
जग के प्रलोभनों की मुझसे अब क्या दाल गलेगी!
दुनिया अब क्या मुझे छलेगी!

लड़ना होगा जग-जीवन से,
लड़ना होगा अपने मन से,
पर न उठूँगा फूल विजय से और न हार खलेगी!
दुनिया अब क्या मुझे छलेगी!

शेष अभी तो मुझमें जीवन,
वश में है तन, वश में है मन,
चार कदम उठ कर मरने पर मेरी लाश चलेगी!
दुनिया अब क्या मुझे छलेगी!