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देखते ही रहो / हरिपाल त्यागी
Kavita Kosh से
चुप रहो, बोलो मत
बस, देखते ही रहो-
पाषाणी धरती के कठोर बिस्तर पर
निर्विकार, निष्कुंठ लेटी है केन नदी,
घाटी में मेला लगा है शिलाओं का
नदी-धाट पर पड़ी धूमिल नौकाओं को
मन में उतार लो, चुपचाप!
पत्थर पर खींच दो
न मिट सकने वाली आड़ी-तिरछी रेखाएं।
वसन्त का घाटी में धंस आना
खेतों में सरसों का फूलना
और केन के उस पार
ऊंचे कगार पर
उचककर घाटी में देखते हुए गांव को
देखते रहो चुपचाप!
बोलो मत,
बस देखते ही रहो...