भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दोहावली / तुलसीदास / पृष्ठ 43

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

दोहा संख्या 421 से 430


सहज सुहृय गुर स्वामि सिख जो न करइ सिर मानि।
सेा पछिताइ अधाइ उर अवसि हाइ हित हानि।।421।


 भरूहाए नट भाँट के चपरि चढे़ संग्राम।
कै वै भाजे आइहैं कै बाँधे परिनाम।422।


लेाक रीति फूटी सहहिं आँजी सहइ न कोइ।
तुलसी जो आँजी सहइ सो आँधरो न होइ।।423।


भागें भल ओड़ेहुँ भलो भलो न घालें घाउ।
तुलसी सब के सीस पर रखवारो रघुराउ।424।


सुमति बिचारहिं परिहरहिं दल सुमनहुँ संग्राम।
सकुल गए तनु बिनु भए साखी जादौ काम।425।


 कलह न जानब छोट करि कलन कठिन परिनाम।
लगति अगिनि लघु नीच गृह जरत धनिक धन धाम।426।


छमा रोष के दोष गुन सुति मनु मानहिं सीख।
अबिचल श्राीपति हरि भए भूसुर लहै न भीख।427।


कौरव पांडव जानिऐ क्रोध छमा के सीम।
पाँचहि मारि न सौ सके सयौ सँघारे भीम।428।


बोल न मोटे मारिऐ मोटी रोटी मारू।
जीति सहस सम हारिबो जीतें हारि निहारू।429।


जो परि पायँ मनाइए तासों रूठि बिचारि।
 तुलसी तहाँ न जीतिऐ जहँ जीतेहूँ हारि।430।