दोहावली / तुलसीदास / पृष्ठ 44
दोहा संख्या 431 से 440
जूते ते भल बूझिबो भली जीति तें हार।
डहकें तें डहकाइबो भलो जो करिअ बिचार।431।
जा रिपु सों हारेहुँ हँसी जिते पाप परितापु।
तासेंा रारि निवारिऐ समयँ सँभारिअ आपु।432।
जो मधु मरै न मारिऐ माहुर देइ सो काउ।
जग जिति हारे परसुधर हारि जिते रघुराउ।433।
बैर मूल हर हित बचन प्रेम मूल उपकारं।
दो हा सुभ संदोह सो तुलसी किएँ बिचार।434।
रोष न रसना खोलिऐ बरू खेालिअ तरवारिं ।
सुनत मधुर परिनाम हित बोलिअ बचन बिचारि।435।
मधुर बचन कटु बोलिबो बिनु श्रम भाग अभाग।
कुहू कलकंठ रव का का कररत काग।436।
पेट न फूलत बिनु कहें कहत न लगाइ ढेर।
सुमति बिचारें बोलिऐ समुझि कुफेर सुफेर।437।
छिद्यो न तरूनि कटाच्छ सर करेउ न कठिन सनेहु।
तुलसी तिन की देह को जगत कवच करि लेहु।438।
सूर समर करनी करहिं कहि न जनावहिं आपु।
बिद्यमान रन पाइ रिपु कायर कथहिं प्रतापु।439।
बचन कहे अभिमान के पारथ पेखत सेतु।
प्रभु तिय लूटत नीच भर जय न मीचु तेहिं हेतु।440।