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दोहा / भाग 9 / रत्नावली देवी

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कुल के एक सपूत सों, सकल सपूती नारि।
रतन एक ही चंद जिमि, करत जगत उजियारे।।81।।

बालहि सीख सिखाय अस, लखि लखि लोग सिंहायं।
आसिष दें हरषें रतन, नेह करें पुलकायं।।82।।

शस्त्र शास्त्र बीना तुरग, बचन लुगाई लोग।
पुरुष विशेषहिं पाइ जे, बचन सुजोग अजोग।।83।।

फूलि फलहि इतरायं खल, जग निदरहिं सतरांय।
साधु फूलि फलि नय रहें, सब सों नय बतरांय।।84।।

एकु एकु आखरु लिखें, पोथी पूरति होइ।
नेकु धरम तिमिनित करौं, रतनावलि गति होइ।।85।।

पांच तुरग तन रथ जुरे, चपल कुपथ लै जात।
रतनावलि मन सारथिहि, रोकि रुकें उतपात।।86।।

रतन न पर दूषन उगटि, आपनु दोष निवारि।
तोहि लखें निरदोष वे, दें निज दोष विसारि।।87।।

करहु दुषी जनि काहु को, निदरहु काहु न कोय।
को जानैं रतनावली, आपनि का गति होय।।88।।

रतन जनक धन ऋन उऋन, बहु जग जन गन होइ।
पै जननी ऋन सों उऋन, होइ विरल जन कोइ।।89।।

श्रम सों बाढ़त देह बल, सुष संपति धन कोष।
बिनु श्रम बाढ़त रोग तन, रतन दरिद दुष दोष।।90।।