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दोहा सप्तक-53 / रंजना वर्मा

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दुनियाँ ऐसी बावरी, सूरत पर बौराय।
यदि होता परब्रह्म तो, होता क्यों न सहाय।।

समझ न मन पाता कभी, जीवन के अभिशाप।
क्षुब्ध रहा करता हृदय, बस अपने ही आप।।

सपने सारे सो गये, जाग रहे हैं नैन।
जब से है आशा मरी, मन कितना बेचैन।।

सबरी के जूठे किये, बेर चखें श्रीराम।
नाता पावन स्नेह का, शेष सभी निष्काम।।

आँगन के इस ओर हम, तुम आँगन के पार।
वैमनस्य ने खींच दी, है मन में दीवार।।

आँचल को छू कर गया, चंचल चपल समीर।
अब तो आ जा साँवरे, मन यमुना के तीर।।

कब कब दुर्घटना हुई, कहाँ आ गयी बाढ़।
धन के लालच में हुए, सब सम्बन्ध प्रगाढ़।।