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दोहा सप्तक-63 / रंजना वर्मा

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टुकुर टुकुर है ताकती, बिटिया माँ की ओर।
उसकी खातिर भी कभी, आयेगी क्या भोर।।

चलते चलते थक गये, माँ के बूढ़े पाँव।
अब तक क्यों आया नहीं, मेरे सुत का गाँव।।

तिरछी चितवन श्याम की, कजरारे दो नैन।
रातों की निंदिया गयी, गया दिवस का चैन।।

छिप छिप कर देखूँ तुझे, ले घूँघट की आड़।
विरहा ने जैसे किया, पथ में खड़ा पहाड़।।

मधुर मिलन की आस में, मुख पर हुआ उजास।
अब तो आ जा साँवरे, इस विरहिन के पास।।

नैनन के पथ आ पिया, उर में करे निवास।
पलक मूँद देखा करूँ, मिटे न मन की प्यास।।

समझ इशारों को पिया, देख पलट इक बार।
फागुन के इस रंग ने, नैन किये रतनार।।