भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
दोहा सप्तक-68 / रंजना वर्मा
Kavita Kosh से
मिट्टी है कहती सदा, रहो न मुझसे दूर।
मानो यदि माता मुझे, प्रेम मिले भरपूर।।
मेरा तेरा क्या करे, मैं तू मन का मैल।
जग सारा भगवान का, चल ममता की गैल।।
कृष्ण भजन नित कीजिये, कृष्ण प्रेम की खान।
मानव तन नश्वर अमर, एकमात्र भगवान।।
विष का प्याला हाथ ले, लगा रही है भोग।
चरणामृत कह पी गयी, लगा न भव का रोग।।
करें किरण का आहरण, तारे रिश्वतखोर।
चन्दा के स्विस बैंक पर, जुगनू का क्या जोर।।
रवि ने छींटा बाजरा, चुनने लगा चकोर।
व्याकुल हो तड़पा करें, दादुर जुगनू मोर।।
सदियों से दुख दर्द सब, रहे छुपाती रात।
भीगे नयनों में करे, सपनों की बरसात।।