भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
दोहा सप्तक-71 / रंजना वर्मा
Kavita Kosh से
आते ही रहते सदा, पतझड़ और बसन्त।
जीवन के दो रूप हैं, सिर्फ़ आदि औ अन्त।।
स्नेह भाव से उर भरा, सद्विचार हो साथ।
मन में नित आनन्द हो, तो क्यों रहे अनाथ।।
विरहा की लंबी निशा, यादें हरसिंगार।
भीनी भीनी महकती, खुशबू जैसे प्यार।।
दूध धुला कोई नहीं, ऐसा जनता राज।
करें हवाले हम किसे,अपना देश समाज।।
तृषित कंठगत हो रहे, हैं धरती के प्राण।
हाहाकारी प्यास से, कौन दिलाये त्राण।।
घर घर बच्चे खेलते, ले कर के बन्दूक।
रोक नहीं इनको सके, हैं अभी हवक मूक।।
अब तक भय से कांपता, जलियाँ वाला बाग।
डबवाली में जल उठी, कैसी भीषण आग।।