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दोहा सप्तक-81 / रंजना वर्मा
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आस मिलन की टूटती, मन है बहुत उदास।
जलनिधि जल से पूर्ण पर, बुझा न पाये प्यास।।
विगत निशा घनश्याम का, मिला स्वप्न आभास।
दरश - लालसा नैन में , हुई न पूरी प्यास।।
सुमन पत्र सब झर गये, खा पतझड़ की मार।
फिर इस उपवन में सजे, फूलों भरी बहार।।
आँगन में आने लगी, थोड़ी थोड़ी धूप।
भला भला लगने लगा, अब दिनकर का रूप।।
कीर्ति सुयश बढ़ते रहें, यदि करिये शुभ कर्म।
जन जन के दुख दूर हों, जीवन का ये मर्म।।
हो अपकीर्ति न विश्व में, रहे सदा सन्नाम।
माननीय नित सूर्य हो, कलुष रहे बदनाम।।
आते ही रहते सदा, पतझड़ और बसन्त।
जीवन के दो रूप हैं, सिर्फ़ आदि औ अन्त।।