दोहे - 4 / शोभना 'श्याम'
स्वेटर हैं बाज़ार में, पहले से तैयार।
गृहिणी अब बुनती नही, रिश्तों का संसार॥
जीवन से माँ बाप को, हमने दिया निकाल।
कविता उनके नाम पर, रोज़ बजाए गाल
डगमग करते पाँव हैं, कँपन करते हाथ।
जन्म दिया, पाला जिन्हें, छोड़ गए वह साथ॥
एक भूख के रूप दो, बचपन गया बताय।
खिड़की से इक फेंकता, दूजा चुग के खाय॥
ज्ञान उसी को दीजिये, जो सुनता हो बात।
बीच सड़क ब्लिंकर लगे, चमके केवल रात॥
विपदा घिरती देख के, होना नहीं उदास।
अंधियारे की कोख में, पलती सदा उजास॥
मिट्टी के इक दीप की, अल्प नहीं औकात।
ये बदले उजियार में, घनी अमावस रात॥
बुढापा ज्यों गिलास के, तले दूध का झाग।
सुड़क सुड़क के अंत तक, पीने का बैराग॥
व्यर्थ सभी पुरुषार्थ है, हो जो दैव ख़िलाफ़।
जीवन बने सलेट सा, आज लिखो कल साफ॥
उम्र भर है सालता, अनकहा उस वक्त।
उससे ज़्यादा सालता, बोला जो बेवक्त॥
हिंदी तुलसी सूर है, हिन्दी ग़ालिब मीर।
हर भाषा को साथ ले, कल-कल बहता नीर॥
ताक रही बच्चों तुम्हें, राष्ट्र की तकदीर।
आओ नव निर्माण की, बन जाओ शमशीर॥
हों कितनी भी बोलियाँ, हो कितने भी वेश।
बस दिल में बसता रहे, अपना भारत देश॥