दो शब्द / दिनकर / विमल राजस्थानी
श्री ‘विमल’ राजस्थानी विहार के एक किशोरवय सुकवि हैं जिनकी प्रतिमा शनैः शनैः किन्तु, सुनिश्चित क्रम से प्रस्फुटित होती जा रही हैl प्रेम और पौरुष, दोनों ही आवेगों पर उनकी सामान रूप से, आसक्ति हैl उनके प्रेम की दुनिया में फूल, नदी, नारी, किरण, नभ-नीलिमा, कोयल, चाँद और तारे आदि कितनी ही अपरूप विभूतियाँ जगमगाती और कलरव करती हैंl
पौरुष के लोक में उन वीरों के मन का अंगारा चमकता है जो देश के लिए यातनाओं को हँस-हँस कर गले लगा रहे हैंl
उनका स्वप्न कभी तो मिट्टी से जन्म लेकर मिट्टी की ओर उड़ता है और कभी आकाश में जन्म लेकर मिट्टी की ओर आता हैl इसे मैं शुभ लक्षण मानता हूँl
भाषा उनकी उर्दू-मिश्रित और सरल हैl किन्तु, मैं आशा करता हूँ की वाह अभी और निखर कर शक्ति और सुंदरता प्राप्त करेगीl शुभमस्तु!”
आकाशवाणी, पटना
५-९-१९४५