धरा-संगीत / राधेश्याम ‘प्रवासी’
सपनों की दुनिया में खोये कवि आज तुम,
जीवन की बात करो धरती के गीत लिखो!
यौवन के मद में बनी बावरी पुरवइया,
डोल उठी मादकता लेकर अमरइया,
खन-खन-खन बोल उठीं गेहूँ की बालियाँ,
सरसों के फूलों पे भौंरों की तालियाँ,
अरहर के भग जगे जई चने लहक उठे,
चटक रही मटर कहीं खेत सभी महक उठे,
भौरों के राग का,
टेसू के फाग का,
भावों की गलियों में भटके कवि आज तुम,
जीवन की बात करो धरती के गीत लिखो!
पीपल के पेड़ तले टूटी सी मड़ैया,
लैरुआ को साथ लिये मोहन की गैया,
सामने कछारों में लिपटी हरियाली,
नाच उठी प्रकृति नटी हो कर मतवाली,
हिरनी अलसायी हुई डाल रही टोना,
खेल रहे सरिता के तट पे मृग छौना,
बालू की सेज पर,
क्षण भर को बैठकर,
जगती की हलचल से ऊबे कवि आज तुम,
जीवन की बात करो धरती के गीत लिखो!
लह-लह-लह अमिलतास डाल लहलहा उठी,
मह - मह अमराई भरे अंक महमहा उठी,
सन - सन - सन पछुआ चली घटा मुस्करा उठी,
रिमझिम के गीतों में कोयलिया गा उठी,
जंगल में दूर कहीं अमवा की छाँव तले,
टेसू में आग लगी धरती का प्यार पले,
कोयल की कूक में,
पपिहा की हूक में,
प्रेयसि के चिन्तन में तन्मय कवि आज तुम
जीवन की बात करो धरती के गीत लिखो!
जेठ भरी दुपहरिया सूरज की छाँव में,
जोत रहा हरवाहा खेतों को गाँव में,
भोजन का थाल लिये गाँव की नवेली,
पास चली हंसिन-सी खेत को अकेली,
विरहा के राग जगे पायल की रुनझुन में,
वीणा के तार जगे घण्टी की टुन-टुन में!
वर्षा की रिमझिम में,
बिरहा की गुनगुन में,
चन्दा की दुनिया में भूले कवि आज तुम
जीवन की बात करो धरती के गीत लिखो!
सूने मैदानों में खेत औ, खलिहानों में,
बैलों की शक्ति जगी निर्धन किसानों में,
कुटियों के दीप जगे खुशियों का साज हुआ,
धरती के राजा का धरती पे राज हुआ,
नाच उठी चाँदनी है चन्दा की बातों में,
बन गया पयाल सेज शुक्ल चैत रातों में,
चन्दा की चाँदनी में,
तारों की यामिनी में,
नयनों के पलकों में बन्दी कवि आज तुम,
जीवन की बात करो धरती के गीत लिखो!
दूर तुम्हें गाँवों में सर्जना बुला रही,
दीनों के आहों की गर्जना बुला रही,
मानव के श्रम की है साधना बुला रही,
आहत के अन्तर की वेदना बुला रही,
अन्तिम है साँसों की कामना बुला रही,
मानवता की है तुम्हें प्रार्थना बुला रही,
आ रही पुकार है,
भूमि की जुहार है,
हाला के प्याला में डूबे कवि आज तुम,
जीवन की बात करो धरती के गीत लिखो!