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धुँआ (28) / हरबिन्दर सिंह गिल
Kavita Kosh से
क्या हमने कभी कोशिश की है
सीखने की, इस धुऐं के बहाव से
जो सदियों से बह रहा है
मानवता के जीवन में ।
यदि नही तो समय आ गया है
सीख लो कुछ सीख
इस लंबे मानव इतिहास में
जिसमें मानवता का अंश बहुत आंशिक है ।
कहीं यह हवा
जो प्रकृति की देन है
गुम होकर न रह जाए
इस धुऐं के बादलों में पूर्णतः
जिसमें सिर्फ दम घुटता है ।