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धुँआ (40) / हरबिन्दर सिंह गिल
Kavita Kosh से
मैं कैसे भूल सकता हूँ
इस धुएँ के घाव को
जिसने मेरे मात-पिता
मेरे भाई-बहिन
और ऐसे ही लाखों परिवारों को
चाहे वो सीमा के इस पार हों
या आज रहते हों उस पार
रख दिया था बनाकर घर से बेघर ।
घर बहुत है मुश्किल बनाना
इसलिए देश बनाने की चाह में
बसे घरों को मत उजाड़ो ।
धुँआ तो घरों को
उजाड़ने के लिए ही बना है
इसे अपने स्वार्थो को बसाने के लिए
कभी मत देना कोई-बुलावा
वरना ब्रम्हांड में मानव नहीं, मानवता नहीं
सिर्फ धुँआ ही धुँआ रहेगा, भूत के बसेरों का ।