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धूप/रमा द्विवेदी

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धूप संग साया चला,
पर संग में कोई न था।
छांव के संग भीड थी,
पर संग में साया ना था॥
   
धूप से ही हिम गला,
धूप से बादल बना।
धूप की ही तपिश से,
हिया धरती का दरक गया॥
  
धूप की ही उष्णता में,
बीज भी अन्कुर बना।
धूप की मनमानी से,
अस्तित्व भी उसका मिटा॥
    
धूप तडपाती भी है,
धूप तरसाती भी है।
शीत से अंग-अंग गले जब,
धूप सहलाती भी है॥
    
ज़िन्दगी के मंच में,
व्यंग्यों की धूप तेज है।
मरहम लगा लगा हंसे,
शब्दों का हेर-फेर है॥
      
धूप की विद्रूपता से,
खुद को बचाइयेगा आप।
वर्ना जल करके कहीं,
पा जाओ न कैन्सर का शाप॥
    
धूप के इस खेल में,
कल की नहीं मुझको खबर।
आज है अस्तित्व मेरा ,
कहीं न जाऊं कल बिखर॥