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नई घड़ी / बालस्वरूप राही
Kavita Kosh से
दादा जी की बड़ी पुरानी,
मेरी घड़ी नई वाली,
कान उमेठे बिना न चलती
दादा जी वी ढीठ घड़ी,
चाबी खत्म जहाँ हो जाती,
हो जाती वहीं खड़ी।
संख्याएँ हैं मिटी-मिटी- सी,
सुइयाँ भी ढीली-ढाली।
मेरी घड़ी बड़ी फुर्तीली,
झटपट समय बदलती है,
चोटी- सी बैटरी लगा दो,
साल-साल भर चलती हैं।
संख्याएँ ही समय बताती
हरी, लाल हों या काली।
मैं सूरज उगने से पहले
घड़ी देख कर जगता हूँ,
घड़ी देखकर ठीक समय पर
जमकर पढ़ने लगता हूँ।
जब-तब घड़ी देखता रहता,
नहीं बैठता हूँ खाली।