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नक्शे में रेखा / मोहन राणा

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जो छूटा वो अब दूर
जो पास आता वो भी बहुत दूर
फिलहाल अपने दिन रात को बदलना होगा
कुर्सी को झुका नींद की करवट में गर हो सके तो,
दो देशांतरों के बीच सीमा पार करते जहाज़
मीटर और फ़ुट ऊँचाई बताता
सरकता है नक़्शे में एक रेखा पर

मैंने देखा वह
जिया वह
कि कह सकूँ चुप रह

गरमियाँ आयेंगी यहाँ जो याद नहीं रह पातीं
अपने से हमेशा बहुत दूर,
मैंने छुआ है नक़्शे में किसी और रेखा में
तपती दोपहर चलती गरम हवा की भी होती है अपनी उदासी
सरसर पीपल के झोंकों में बची छाया तल बैठे,
कि कभी लगता एक चमक टूट कर गिरेगी मुझ पर आकाश से
प्रत्यक्षा के लिए