भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
नज़र की धूप में साये घुले हैं शब की तरह / फ़राज़
Kavita Kosh से
नज़र की धूप में साये घुले हैं शब की तरह
मैं कब उदास नहीं था मगर न अब की तरह
फिर आज शह्रे -तमन्ना<ref>इच्छाओं का नगर</ref>की रहगुज़ारों<ref>मार्गों</ref>से
गुज़र रहे हैं कई लोग रोज़ो-शब <ref>दिन-रात</ref>की तरह
तुझे तो मैंने बड़ी आरज़ू<ref>अंतर्मन</ref>से चाहा था
ये क्या कि छोड़ चला तू भी और सब की तरह
फ़सुर्दगी<ref>उदासी</ref>है मगर वज्हे -ग़म<ref>दु:ख का कारण</ref>नहीं मालूम
कि दिल पे बोझ-सा है रंजे-बेसबब<ref>अकारण दु:ख</ref>की तरह
खिले तो अबके भी गुलशन <ref>उद्यान</ref>में फूल हैं लेकिन
न मेरे ज़ख़्म<ref>घाव</ref>की सूरत न तेरे लब <ref>होंठ</ref>की तरह
शब्दार्थ
<references/>