भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

नज़ाकत का आलम / जयप्रकाश मानस

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

धुएँ के बीच एक चेहरा
पहलगाम की ठंड में सुलगता
नहीं था वह सिर्फ़ नाम
बल्कि एक आग, जो बुझने से इनकार करती थी।

छत्तीसगढ़ की मिट्टी
चिरमिरी की कोयले-सी काली रात
उसमें ग्यारह साँसें
हिंदू पर्यटक, राजनीति के रंग में रँगे
फिर भी दीये, जिन्हें हवा का डर नहीं।

नज़ाकत
जैसे कोई पुराना गीत,
जो बारूद के शोर में भी गुनगुनाया जाए।
उसके हाथों में नहीं थी बंदूक
बस एक हौसला
जो पहाड़ों से कहता था—
"रुक, अभी इंसान बाक़ी है।"

सांप्रदायिकता,
वह साँप, जो फन उठाए,
हर गली हर दिल में ज़हर बोता है
पर नज़ाकत,
वह बाँसुरी,
जो ज़हर को भी राग में बदल दे।

ग्यारह जानें,
जैसे ग्यारह तारे,
जो आसमान के सीने में टँके थे।
नज़ाकत ने उन्हें नहीं चुना
बस उन्हें देख लिया
जैसे कोई बच्चा
अपने घर की चौखट पर दीया देख लेता है।

मानवता
वह नदी, जो सूखती नहीं,
चाहे कितने ही पत्थर डाल दो।
नज़ाकत उसका किनारा था
जहाँ थककर सारी नफ़रतें,
पानी बनकर बह गईं।

यह कविता नहीं,
बल्कि एक आहट है,
जो कहती है —
जब तक नज़ाकत है,
इंसान का आलम बाक़ी है।
 
*[पहलगाम हमले में टूरिस्ट गाइड और स्थानीय व्यापारी नज़ाकत अली ने छत्तीसगढ़ की कोयला नगरी चिरमिरी के सैलानियों (भाजपा कार्यकर्ता) कुलदीप स्थापक, अरविंद अग्रवाल, हैप्पी बधावान और शिवांश जैन के परिवार के 11 सदस्यों को जान से खेलकर बचाया है ।]