भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

नज़्म की आड़ से / पंछी जालौनवी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मैं अपनी ही
आवाज़ से घबरा कर
ख़ुदमें कहीं छुप जाता हूँ
मैं अपने ही
ख़यालों से कतरा कर
ख़ुदसे कहीं गुज़र जाता हूँ
मैं कभी
किसी नज़्म की आड़ से
पढ़ता हूं ख़ुद अपना लिक्खा
मैं कभी सुनता हूं चोरी से
अपनी वो बातें भी
जो मुझे अभी कहनी हैं ॥