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नदी / प्रफुल्ल कुमार परवेज़

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चट्टानों की दरारों से सरकता
रास्ता बनाता
बूँदों का संगठन
होता है नदी

नदी
बींध कर पहाड़ी क़ैद
जब बाहर आती है
पहाड़ों पर जमी बर्फ़ राह पा जाती है

नदी जहाँ-जहाँ से गुज़रती है
वहाँ-वहाँ
मोम की तरह
पिघलता है पहाड़
नदी
कभी नहीं रुकती
टकराती है द्रुत हो जाती है
तैनात अवरोधी चट्टान
देखती रह जाती है
चुस्ती से छलाँगती है
ढलान-दर-ढलान
खाई-दर-खाई

नदी कभी घायल नहीं होती
नदी के संतुलन से
हर बार हारता है पहाड़
पहाड़ के सीने पर
साँप की तरह
लोटती है नदी

नदी के बहाव से
बुझती है प्यास
फलते-फूलते हैं खेत
मिटती है भूख
रौशन होते हैं घर
अँधेरे के शरीर पर
बनते हैं घाव

नदी कभी ख़त्म नहीं होती
नदी सागर हो जाती है