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नदी की प्यास / संगीता गुप्ता

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नदी की प्यास
और बूँद भी कहाँ मिली
बढ़ती रही प्यास
और कामना भी कहाँ घटी
अगर कुछ घटा
तो बस जीवन
चलता रहा यूँ ही
हिसाब - किताब
बढ़ती प्यास, कामना
और घटते जीवन का
पकड़ ली तुम्हारी बाँह
डूबता कोई पकड़ता है
तिनका जैसे
कभी छोड़ा कहाँ
फिर तुमने
बन गये साधना
और सोख लिया सब
कामना, प्यास, बेचैनी
यहाँ तक कि मुझे भी
बना दिया मुझे
एक नदी गहरी
यूँ प्यास का
नदी बन जाना
अच्छा - सा लगता है