भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
नदी की हवा / नवनीता देवसेन
Kavita Kosh से
|
अंधेरे में हो रही थी बारिश
परछाई नाच रही थी गाड़ी के काँच पर
अचानक नदी की हवा ने छू लिया था
अजानी बिजली काँप उठी थी मन में
बहुत-बहुत दूर था घर
डामर की सड़क बारिश में भीगी नदी थी
अनुत्तरित अन्तहीन थे कगार
निरवधि झरता रहा था अंधेरा
बार-बार बातों की तलाश में भटक कर
थके अंग, आग, सफ़ेद धुआँ
मिट्टी कीचड़ और घास के गीलेपन को छूती
खिड़की से उड़कर आई थी गंध
असफल समारोह में नाच रही है बारिश
संसार को चीर देते हैं बिजली के फलक
घंटा बज उठता है वाक्यहीन देह में
और अंधेरे की यह अंतहीन यात्रा...
और उस यात्रा के रुकते ही
पंख पसार कर उड़ चला है अंधेरा
सूर्य-बिंधे धू-धू करते रेतीले तटों पर
नदी की हवा सूखी पीली घास पर
रोती रहती है।
मूल बंगला से अनुवाद : उत्पल बैनर्जी