भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

नया द्रश्य / महेन्द्र भटनागर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


सामने सौ-सौ विपथ के मृदु प्रलोभन
घेर साधक को, रहे कर मुग्ध नर्तन !

मुक्ति औ’ स्वच्छंदता का उर दबाकर
बाँसुरी तम-युग विजन की कटु बजाकर,

जो सफलता पर अशिव की गा रहा है
समय उसका भी मरण का आ रहा है !

शीघ्र होगा अब दनुजता-मान-मर्दन
आज अंतिम टूटते हैं मनुज-बंधन !

शीघ्र गूँजेगी गगन में महत मानव
लोकवाणी शक्तिशील और अभिनव !

दे सकेगी पीड़ितों को सुदृढ़ संबल
विश्व के सब शोषितों को स्नेह निश्छल !

हत प्रताड़ित नत दुखी बेचैन जन-जन
सुन सकेंगे तूर्य नव उन्मुक्त जीवन !

चिन्ह नवयुग के प्रखर देते दिखायी,
ज्योति नूतन, सृष्टि-कण-कण में समायी !

शीघ्र उभरेगा, जगत का हर दबा स्वर,
इस बदलती शुभ घड़ी में जाग ‘सुंदर’ !

आज दुर्बल क्षीण स्वर देता न शोभन,
आज कवि का हो सबल नव भाव-चित्रण !